सरहदों से बंटे लाहौर और दिल्ली प्रदूषण के ख़िलाफ़ जंग में साथ खड़े हैं
हर साल सर्दियों में लाहौर और नई दिल्ली दोनों शहरों में, वायु प्रदूषण का संकट बेहद गंभीर हो जाता है। पिछले कई वर्षों से ये हालात तकरीबन पहले की तरह ही बरकरार हैं। इसके समाधान के लिए कुछ-कुछ प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन दोनों ही शहरों में, फिलहाल इस दिशा में बहुत कम प्रगति हुई है।
नवंबर 2022 की एक तस्वीर। इस उपग्रह चित्र में दिख रहा है कि किस तरह से भारत और पाकिस्तान में वायु प्रदूषण के बादल मंडरा रहे हैं। (फोटो: जोषुआ स्टीवंस/ नासा अर्थ ऑब्ज़र्वेटरी )
कस्तूरी दास, नईम सहोत्रा
लाहौर और नई दिल्ली में कई चीज़ें एक जैसी हैं। मसलन, ये दोनों शहर खाने-पीने के मामले में बेहद मशहूर हैं। इन दोनों शहरों की संस्कृतियों में भी समानता है। लेकिन बस इतना ही नहीं, इन दोनों के शहरों के बीच एक चीज़ और सामान्य है, वह है वायु प्रदूषण। सर्दियों के ज़्यादातर महीनों में वायु प्रदूषण की धुंध इन दोनों शहरों के ऊपर छाई रहती है।
नई दिल्ली लगातार दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में से एक के रूप में अपना स्थान बनाए हुए है। हाल के वर्षों में लाहौर भी इस लिस्ट में तेज़ी से ऊपर बढ़ गया है। कभी-कभी तो यह नई दिल्ली से भी आगे निकल चुका है।
वायु प्रदूषण का सबसे ज़्यादा ख़ामियाज़ा दोनों ही शहरों के बच्चों को भुगतना पड़ता है। नई दिल्ली में, नवंबर 2022 में स्कूलों को बंद करने का आदेश दिया गया क्योंकि वायु प्रदूषण “खतरनाक” स्तर पर पहुंच गया था। दिसंबर में लाहौर के स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को सुरक्षित रखने के लिए शीतकालीन अवकाश को बढ़ाया गया था।
इमरा और सारा सरफ़राज़, 15 और 17 साल की बहनें हैं, जो लाहौर के जीसस एंड मैरी कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ती हैं। इन दोनों को स्कूल बंद होने से कुछ राहत मिली।
फेस मास्क अब कोविड-19 से बचाव के लिए नहीं बल्कि वायु प्रदूषण से बचने के लिए पहना जा रहा है। फेस मास्क पहने हुए इमरा ने द् थर्ड पोल को बताया: “मुझे फ्लू हुआ था जबकि मेरी बड़ी बहन को स्किन एलर्जी हो गई थी। स्मॉग के कारण हमें सांस लेने में भी दिक्कत होती है। गले में भी दर्द होता है।” ये हालात उसके दो दोस्तों के लिए और भी कठिन हैं, जो पहले से ही अस्थमा से पीड़ित हैं।
वायु प्रदूषण से जुड़े बड़े मुद्दों पर नहीं दिया गया ध्यान
इस समस्या से निपटने के लिए ज़रूरी उपायों में से अगर कोई एक उपाय जो दोनों ही शहरों किया गया है तो वह है स्कूलों को बंद करना। लाहौर हाई कोर्ट ने 2015 में जब से पाकिस्तान सरकार को जलवायु परिवर्तन के मुद्दों पर अपने खुद के कानूनों को लागू करने का आदेश दिया, तब से इस समस्या के समाधान के लिए लगातार न्यायिक दबाव बना हुआ है। वायु प्रदूषण जैसे मुद्दों से निपटने के लिए क्या प्रयास किए जा रहे हैं, इस पर चर्चा के लिए हाई कोर्ट के न्यायाधीश पूरे साल हर शुक्रवार को मिलते हैं।
पाकिस्तान की पंजाब एनवायरनमेंट प्रोटेक्शन एजेंसी के डायरेक्टर जनरल, ख्वाजा मुहम्मद सिकंदर ज़ीशान ने द् थर्ड पोल को बताया कि इस साल, “पहली बार, हमने एक सोफिस्टिकेटेड डाटा कलेक्शन सेंटर स्थापित किया है, जिसे स्मॉग पैदा करने वाले स्रोतों की पहचान करने का काम सौंपा गया है। इसके अलावा, इस सेंटर के अन्य कामों में, लोगों की शिकायतों पर जवाब देना, दैनिक आधार पर रिपोर्ट तैयार करना और फिर इसके हिसाब से ज़रूरी कदम उठाना शामिल है।
उन्होंने बताया कि अकेले लाहौर में कूड़ा जलाने के लिए व्यक्तियों या औद्योगिक इकाइयों के खिलाफ 6,457 मामले दर्ज किए गए। उनके विभाग ने पांच विशेष ‘एंटी-स्मॉग स्क्वॉड’ भी शुरू किए, जो नियमित रूप से फील्ड का दौरा करते हैं और कचरा जलाने पर प्रतिबंध का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ मौके पर ही कानूनी कार्रवाई करते हैं।
ज़ीशान ने बताया कि इन स्क्वॉड्स यानी दस्तों ने प्रदूषण फैलाने वाले कारखानों, धुएं फेंकने वाले वाले वाहनों, पराली और कचरा जलाने वाले किसानों के खिलाफ अक्टूबर से 45 लाख पाकिस्तानी रुपये का जुर्माना लगाया है।
पर्यावरणविद् और वकील, अहमद रफ़े आलम का मानना है कि ये कोशिशें बहुत कम हैं और काफ़ी देर हो चुकी है। वह कहते हैं, “हर साल हम ईंट भट्ठे और छोटे उद्योगों को बंद कर देते हैं। हम बस स्मॉग के हॉटस्पॉट की पहचान करते हैं। सिर्फ डाटा सेंटर स्थापित करने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा।”
पाकिस्तान में, वायु प्रदूषण का एक प्रमुख कारण वाहनों, उद्योगों और रिफाइनरीज़ में उपयोग किए जाने वाला घटिया पेट्रोल, डीज़ल और फर्नेस ऑयल है। पाकिस्तानी वाहनों के लिए वाहन उत्सर्जन मानक अभी भी ‘यूरो 2‘ स्तर पर हैं। यूरो 6 मानकों की तुलना में, इससे अधिक कार्बन डाइऑक्साइड, पार्टिकुलेट मैटर और अन्य तरह के उत्सर्जन होते हैं। भारत, यूरो 6 लागू करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है।
आलम ने वाहन मालिकों और फर्नेस ऑयल व कोयले का उपयोग करने वाले बिजली संयंत्रों का ज़िक्र करते हुए द् थर्ड पोल से कहा है कि ये अमीर और प्रभावशाली तबके के लोग हैं। फर्नेस ऑयल का उपयोग करने वाली रिफाइनरियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई है। और क्या आपने कोयले से चलने वाले संयंत्रों के खिलाफ कार्रवाई के बारे में सुना है?
नई दिल्ली में बड़ी योजनाएं, काफ़ी पैसा, लेकिन सुधार बहुत कम
वहीं, नई दिल्ली में, भले ही वाहनों से होने वाले उत्सर्जन के मानकों को उच्च स्तर पर करने की बात हो, लेकिन भारत सरकार द्वारा 2019 में शुरू किए गए नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम (एनसीएपी) के बावजूद, हवा पहले जितनी ही प्रदूषित है। इस योजना को लेकर शुरू में एक लक्ष्य निर्धारित किया गया था। इसके मुताबिक 2024 तक भारत के 122 शहरों में, वायु प्रदूषण के सबसे प्रमुख कारकों पीएम 10 और पीएम 2.5 (पार्टिकुलेट मैटर जो 2.5 माइक्रोन या उससे कम व्यास के होते हैं और सीधे रक्त प्रवाह में प्रवेश करने में सक्षम होते हैं) को 20 से 30 फीसदी तक कम करना था। इसके लिए 2017 में प्रदूषण के स्तर को बेसलाइन के रूप में उपयोग करना था।
सितंबर 2022 में, इस लक्ष्य को संशोधित किया गया। अब पार्टिकुलेट मैटर में 2026 तक 40 फीसदी तक की कमी लानी है। लेकिन सच्चाई यही है कि चार साल बाद, और 6.9 अरब रुपये खर्च करने के बाद, विशेषज्ञों का कहना है कि वायु प्रदूषण से निपटने के मामले में नई दिल्ली की प्रगति धीमी रही है।
एनसीएपी ट्रैकर (वायु प्रदूषण से निपटने के लिए किए जाने वाली कोशिशों को किस तरह से लागू किया जा रहा है, इसको ट्रैक करने वाला एक ऑनलाइन रिसोर्स) का काम करने वाली एक संस्था क्लाइमेट ट्रेंड की डायरेक्टर आरती खोसला का कहना है कि आंकड़े दिखाते हैं कि पिछले तीन वर्षों के दौरान दिल्ली की एयर क्वालिटी में बहुत मामूली सुधार हुआ है। एनसीएपी ट्रैकर का यह काम, टेक स्टार्टअप रेस्पिरर लिविंग साइंस के सहयोग से हो रहा है।
वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए अन्य देशों ने विज्ञान पर आधारित नीतियों को अच्छे से लागू किया। उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता बहुत ऊंची रही। और नीतियों का पालन न करने वालों के लिए भारी दंड की व्यवस्था की। इन देशों को इसका फायदा मिला है।
आरती खोसला, क्लाइमेट ट्रेंड
नई दिल्ली में इंडियन एनवायरनमेंट मिनिस्ट्री के एयर पलूशन ट्रैकर में पीएम 2.5 का ज़िक्र ही नहीं है। इसमें केवल कम खतरनाक पीएम 10 के स्तर का ज़िक्र है, जिसमें मुश्किल से 10 फीसदी की गिरावट दिखाई गई है।
खोसला का कहना है, “अत्यधिक घनत्व और लगातार बढ़ती जनसंख्या वाले एक शहर के लिए, केवल क्रांतिकारी नीतिगत बदलाव ही वायु गुणवत्ता के मामले में कुछ फायदे ला सकते हैं। हमने देखा है कि वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए अन्य देशों ने विज्ञान पर आधारित नीतियों को अच्छे से लागू किया। उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता बहुत ऊंची रही। और नीतियों का पालन करने वालों के लिए भारी दंड की व्यवस्था की। इन देशों को इसका फायदा मिला है। अगर हमें दिल्ली के आसमान को तेज़ी से साफ करना है तो हमें भी ऐसे ही मॉडल को लागू करना होगा।”
मिनिस्ट्री ऑफ अर्थ एंड साइंसेस के एयर क्वालिटी मॉनिटरिंग सिस्टम, सिस्टम ऑफ एयर क्वालिटी एंड वेदर फोरकास्टिंग एंड रिसर्च (एसएएफएआर) के संस्थापक गुफरान बेग ने कहा कि वाहनों का उत्सर्जन, नई दिल्ली में वायु प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण है। बेग ने द् थर्ड पोल को बताया कि 2020 में, कुल वायु प्रदूषण में परिवहन क्षेत्र हिस्सा लगभग 38 से 40 फीसदी तक रहा। और बात जब वाहनों से होने वाले उत्सर्जन की हो तो यह ट्रेंड गलत दिशा में जा रहा है।
बेग बताते हैं कि पिछले एक दशक के दौरान दिल्ली में परिवहन क्षेत्र में 40 फीसदी की वृद्धि हुई है, जबकि जैव ईंधन (बायोफ्यूल) उत्सर्जन, जो मुख्य रूप से आवासीय उत्सर्जन हैं, में 46 फीसदी की कमी आई है। लेकिन परिवहन क्षेत्र का आकार इतना अधिक है कि इस 46 फीसदी की कमी से कोई खास फर्क नहीं पड़ता। कुल मिलाकर, पिछले एक दशक में, उत्सर्जन में वृद्धि लगभग 12 से 15 फीसदी है। यह [वाहन उत्सर्जन] प्रदूषण का प्राथमिक स्रोत है।
पराली के धुएं पर ध्यान है, पर क्या ये ज़रूरत से ज़्यादा है?
पराली जलाने के मामलों पर ध्यान बहुत केंद्रित किया गया है। इसमें फसल अवशेषों को जलाया जाता है। अगले सीजन की फसल बोने से पहले, खेतों के अवशेषों को साफ करने का यह एक सस्ता तरीका है। वायु प्रदूषण की चर्चा में पराली जलाने की बात हावी रहती है।
इस पर बेग का कहना है कि सर्दियों के दौरान, दिल्ली में तकरीबन 20 से 25 फीसदी प्रदूषक बाहर से आ जाते हैं। इसका एक प्रमुख कारण पराली जलाना है। यह उत्तर-पश्चिम क्षेत्र से दिल्ली की ओर आती है, जो अक्टूबर और नवंबर के दौरान एयर क्वालिटी को और खराब कर देती है।
नई दिल्ली स्थित थिंक टैंक, काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर (सीईईडब्ल्यू) में प्रोग्राम एसोसिएट एल.एस. कुरिंजी ने द् थर्ड पोल को बताया: “पराली जलाना, वायु प्रदूषण में एक मौसमी योगदान है। दिल्ली या पंजाब की वायु गुणवत्ता में इसका योगदान 15 से 20 दिनों का है। आमतौर पर यह स्थिति अक्टूबर के अंत और नवंबर के मध्य के बीच, हार्वेस्ट टाइम के दौरान पैदा होती है। लेकिन चूंकि यह मौसम संबंधी परिवर्तनों के साथ मेल खाता है, मसलन, हवा की दिशा में बदलाव और तापमान का कम होना, इससे इस समय अवधि के दौरान वायु प्रदूषण की गंभीरता बढ़ जाती है।”
जहां पराली जलाई जाती है, उसकी विशेष भौगोलिक पहचान का अर्थ यह है कि लोगों के एक खास समूह को इसके लिए दोषी ठहराया जा सकता है। नवंबर 2022 की सीईईडब्ल्यू की एक रिपोर्ट के अनुसार, “[भारतीय] पंजाब के मालवा क्षेत्र में, राज्य में खरीफ सीज़न के बाद सबसे अधिक पराली जलाने की घटनाएं होती हैं। साल 2022 में पता लगाया गया कि 40 हजार से अधिक खेतों में पराली जलाने के कारण उस समय, इस क्षेत्र की हिस्सेदारी 80 फीसदी से अधिक रही। इसका अच्छा पहलू यह है कि बदलाव भी जल्दी हो सकता है। सीईईडब्ल्यू द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि इस भारतीय राज्य में “इन-सीटू फसल अवशेष प्रबंधन लागू करने में काफी वृद्धि” दिखी है, जिसका अर्थ पराली को जलाने की ज़रूरत नहीं पड़ती।
भारत के पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुख्य पर्यावरण अभियंता (चीफ एनवायर्नमेंटल इंजीनियर) करुणेश गर्ग के अनुसार, पिछले वर्ष की तुलना में 2022 में पंजाब में आग लगने की 30 फीसदी कम घटनाएं दर्ज की गईं। उन्होंने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि पंजाब में पराली जलाने से दिल्ली में वायु प्रदूषण में केवल 5 फीसदी से 10 फीसदी का योगदान होता है। बाकी प्रदूषण दिल्ली में ही पैदा होता है।
सरहद के आर-पार ब्लेम गेम
भारत में पराली जलाए जाने के मामले में, सेटेलाइट इमेजरी में नज़र आने से कुछ पाकिस्तानी राजनेता इस तरह के दावे करने के लिए प्रेरित हो गए हैं कि लाहौर के वायु प्रदूषण संकट के लिए ज़्यादातर भारत में फसल अवशेषों का जलाया जाना ज़िम्मेदार है।
यह पूछे जाने पर कि क्या पाकिस्तानी अधिकारियों ने कभी इस मामले को भारत सरकार के साथ उठाया, इस पर पाकिस्तानी पंजाब पर्यावरण विभाग के ज़ीशन ने कहा कि “यह विदेश कार्यालय से संबंधित मामला था। और मुझे यकीन है, उन्होंने इस मामले को भारतीय विदेश कार्यालय के साथ उठाया होगा।”
टी.सी.ए. राघवन, जिन्होंने 2013 और 2015 के बीच पाकिस्तान में भारतीय उच्चायुक्त के रूप में कार्य किया, ने द् थर्ड पोल को बताया: “सीमा पार वायु प्रदूषण के संबंध में आरोप और प्रत्यारोप हो सकते हैं, लेकिन कम से कम मेरी जानकारी में, सरकारी स्तर पर दोनों देशों के बीच इस मुद्दे पर कोई चर्चा नहीं हुई है। यहां तक कि भारत और पाकिस्तान में गैर-सरकारी स्तर के विशेषज्ञों के बीच भी इस पर कोई बड़ी चर्चा नहीं हुई है।”
द् थर्ड पोल ने पाकिस्तान की जलवायु परिवर्तन मंत्री शेरी रहमान से संपर्क किया, लेकिन वह इस मामले पर टिप्पणी करने के लिए उपलब्ध नहीं थीं। वहीं, पाकिस्तान के विदेश मामलों के मंत्रालय ने सवालों का कोई जवाब नहीं दिया। हालांकि, एक पाकिस्तानी राजनयिक ने, नाम न छापने की शर्त पर कहा कि भारत सरकार द्वारा अगस्त 2019 में कश्मीर से अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के बाद से, दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंध तनावपूर्ण हो गए थे। वैसे भी, पाकिस्तान और भारत के बीच शायद ही कभी किसी मुद्दे पर चर्चा होती है। जहां तक पराली जलाने के मुद्दे का संबंध है, इसे शायद ही उठाया गया होगा, क्योंकि यह एक मामूली मुद्दा है।”
लेकिन ‘द ग्रेट स्मॉग ऑफ इंडिया‘ के लेखक सिद्धार्थ सिंह ने इस बात पर ज़ोर दिया कि भारत और पाकिस्तान में वायु प्रदूषण से निपटने के लिए सीमा पार सहयोग की आवश्यकता होगी। उन्होंने द् थर्ड पोल से कहा, “हवाएं कोई राजनीतिक सीमा नहीं जानती। यह एक ऐसा मुद्दा है जिसका किसी विशेष ज्योग्राफी के संपूर्ण एयरशेड के संदर्भ में विश्लेषण करने की आवश्यकता है। पाकिस्तान के पूर्वी भाग, विशेष रूप से पंजाब क्षेत्र, और पश्चिमी व मध्य गंगा के मैदान, सभी एक ही एयरशेड का हिस्सा हैं। ऐसा संभव नहीं है कि एयरशेड का केवल एक हिस्सा साफ़ कर दिया जाए तो बाकी हिस्से भी क्लीन हो जाएंगे। इसलिए पूरे एयरशेड को साफ़ करने की ज़रूरत है।”
वह कहते हैं, “वास्तव में, यह [एयरशेड जिसके भीतर प्रदूषक सर्दियों के दौरान फंस जाते हैं] बांग्लादेश तक फैला हुआ है। यदि आपको इस क्षेत्र में हवा को साफ करना है, तो आपको मूल रूप से पेरिस समझौते के एक संस्करण की आवश्यकता है। लेकिन यह काम वायु प्रदूषण के लिए करना है जो कि वैश्विक नहीं है। लेकिन, कम से कम, इस मामले में, इन तीन देशों को एक साथ आना चाहिए, ताकि प्रत्येक देश में वायु प्रदूषकों के स्थानीय स्रोतों की पहचान की जा सके और इनके समाधान के लिए जरूरी कदम उठाए जा सकें।”
साभारः द थर्ड पोल डॉट नेट