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पुल गिरने के लिए बनते हैं

अजीत द्विवेदी
पाकिस्तान के मशहूर व्यंग्यकार अनवर मकसूद के लोकप्रिय टेलीविजन शो ‘लूज टॉक’ के एक एपिसोड में मोईन अख्तर शिक्षक बन कर आए थे और उन्होंने एक सवाल पूछा कि ‘पुल किसलिए बनते हैं’? एंकर अनवर मकसूद ने कई जवाब दिए लेकिन मोईन अख्तर संतुष्ट नहीं हुए और अंत में उन्होंने जवाब दिया कि ‘पुल गिरने के लिए बनते हैं’! यह पाकिस्तान की बात थी, लेकिन भारत पर भी लागू होती है। भारत में भी पुल गिरने के लिए ही बनते हैं। हो सकता है कि पाकिस्तान से कुछ कम गिरते हों लेकिन भारत में भी पुल अक्सर गिर जाते हैं। हर बार इसकी बड़ी खबर इसलिए नहीं बनती है क्योंकि कई बार ऐसे समय में पुल गिरते हैं, जब उनके ऊपर या नीचे कोई नहीं होता है। यानी हादसे में कोई मारा नहीं जाता है। निर्माणाधीन फ्लाईओवर, रेलवे ओवरब्रिज, फुटओवर ब्रिज या मेट्रो के खंभों पर बिछाई जा रही पटरियां गिर जाती हैं। एक अंतरराष्ट्रीय जर्नल ‘स्ट्रक्चर एंड इंफ्रास्ट्रक्चर इंजीनियरिंग’ में 2020 में एक रिपोर्ट छपी थी। ‘एनालिसिस ऑफ ब्रिज फेल्योर इन इंडिया फ्रॉम 1977 टू 2017’ नाम से छपी इस रिपोर्ट में बताया गया था कि भारत में इन 40 सालों में 2,130 पुल तैयार नहीं हो पाए या निर्माण के अलग अलग चरणों में गिर गए!

असल में पुल गिरना मीडिया में बड़ी खबर तब बनता है, जब ऐसी घटनाओं में लोग मरते हैं या घटना ऐसी जगह होती है, जहां चुनाव होने वाले होते हैं। याद करें कोलकाता में 2016 में विवेकानंद फ्लाईओवर गिर जाने की घटना को। उस घटना में 24 लोगों की जान गई थी। यह घटना मार्च में हुई थी और मई में पश्चिम बंगाल में चुनाव होने वाले थे। सो, यह बड़ी खबर बनी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इसे लेकर राज्य सरकार पर निशाना साधा था। बंगाल में 2018 में भी दक्षिण कोलकाता में एक पुल गिर गया था लेकिन उसकी कोई चर्चा नहीं हुई क्योंकि सिर्फ चार लोग मरे थे और कोई चुनाव भी नहीं था। पिछले 10-12 साल में ही पुल गिरने के कई बड़े हादसे हुए, जिसमें लोगों की जान गई। पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग में 2011 में लकड़ी का एक पुल गिर गया था, जिसमें 32 लोगों की जान चली गई थी। इसके थोड़े ही दिन बाद अरुणाचल प्रदेश में एक फुटब्रिज टूट कर गिर गया, जिसमें 30 लोगों की मौत हुई। मरने वाले ज्यादातर बच्चे थे। तीन साल पहले 2019 में मुंबई में छत्रपति शिवाजी महाराज रेलवे टर्मिनस पर एक फुटओवर ब्रिज टूट गया था, जिसमें छह लोगों की मौत हो गई थी। इस पुल का ऑडिट छह महीने पहले ही हुआ था!

सोचें, अगर इन घटनाओं से कोई सबक लिया गया होता तो गुजरात के मोरबी में पुल गिरने का इतना बड़ा हादसा होता? गुजरात के मोरबी में माच्छू नदी पर बना करीब 136 साल पुराना पुल मरम्मत के बाद दोबारा चालू होने के चौथे ही दिन टूट गया। पुल पर मौजूद करीब चार सौ लोगों में से ज्यादातर लोग नदी में गिर गए और करीब 140 लोगों की मौत हो गई। मरने वालों में सबसे ज्यादा संख्या बच्चों की है। इतने भयावह और दर्दनाक हादसे का जिम्मेदार कौन है? क्या हादसे के लिए वे ही लोग जिम्मेदार हैं, जिनको गिरफ्तार किया गया है और जिनके खिलाफ गैर इरादतन हत्या के मामले दर्ज हुए हैं? जिस कंपनी को पुल के रखरखाव का ठेका दिया गया था उस कंपनी के छोटे छोटे नौ कर्मचारियों को गिरफ्तार किया गया है। हो सकता है कि उनके लालच की वजह से हादसा हुआ हो क्योंकि बताया जा रहा है कि टिकट क्लर्क ने क्षमता से कई गुना ज्यादा लोगों को टिकट दे दी थी। इसके बावजूद मुख्य जिम्मेदारी उनके ऊपर आयद नहीं होती है। मुख्य जिम्मेदारी स्थानीय प्रशासन की बनती है। जिला कलेक्टर से लेकर नगरपालिका के अधिकारी और लोक निर्माण विभाग के इंजीनियर व अन्य अधिकारी जिम्मेदार बनते हैं और उससे भी ऊपर ‘डबल इंजन’ की सरकार की जिम्मेदारी बनती है।
यह यह हैंगिंग यानी झूलता हुआ पुल था, जो आमतौर पर पहाड़ी और दुर्गम इलाकों में बनाया जाता था। अंग्रेजी राज में 1887 में जब यह पुल बना था तब बताया जा रहा है कि एक समय में इस पर 15 लोगों के जाने की इजाजत थी और जिस दिन हादसा हुआ उस दिन पुल पर चार सौ या उससे ज्यादा लोग थे! क्या इसके लिए सिर्फ टिकट क्लर्क जिम्मेदार ठहराया जाएगा? पुल के रखरखाव का काम अरेवा नाम की जिस कंपनी को दिया गया था उसका मुख्य काम घरों में काम आने वाले छोटे छोटे इलेक्ट्रॉनिक आइटम बनाने का है। क्या ऐसी कंपनी को ठेका देने के लिए कंपनी के छोटे कर्मचारी जिम्मेदार हैं? छह महीने की मरम्मत के बाद कंपनी ने फिटनेस सर्टिफिकेट लिए बगैर ही पुल चालू कर दिया था क्योंकि दिवाली के अगले दिन गुजराती नव वर्ष होता है और उस दिन काफी लोग इस क्षेत्र में घूमने आते हैं। क्या इसके लिए भी कंपनी के सिर्फ छोटे छोटे कर्मचारी जिम्मेदार ठहराए जाएंगे?

असल में कंपनी के प्रबंधन या उसके मझोले व निचले स्तर के कर्मचारियों से ज्यादा जिम्मेदारी स्थानीय प्रशासन की बनती है। सबको पता था कि पुल बहुत पुराना और कमजोर है फिर भी किसी अनुभवहीन कंपनी को उसके रखरखाव का ठेका क्यों दिया गया? नगरपालिका से फिटनेस सर्टिफिकेट लिए बगैर पुल कैसे चालू हो गया? कंपनी के प्रबंधन की हिम्मत कैसे हुई कि वह बिना प्रमाणपत्र के इसे चालू करे? पुल 25 अक्टूबर को चालू हुआ और हादसा 30 अक्टूबर को हुआ, इस दौरान स्थानीय प्रशासन और पुलिस क्या कर रहे थे? क्या पांच दिन तक उनको पुल चालू होने की सूचना नहीं मिली या उन्होंने जान बूझकर किसी फायदे के लिए अवैध तरीके से पुल को चालू होने दिया? इससे क्या पुल का रखरखाव करने वाली कंपनी और स्थानीय प्रशासन की मिलीभगत का मामला सामने नहीं आता है? इसके बावजूद गाज गिरी है, कंपनी के छोटे छोटे कर्मचारियों पर! साथ ही पूरे मामले पर लीपापोती का प्रयास भी शुरू हो गया है। छोटे कर्मचारियों की गिरफ्तारी और पांच लोगों की विशेष जांच टीम यानी एसआईटी बना कर मामले की तात्कालिक गरमी को शांत कर दिया गया है और अब आगे की जांच सरकारी स्टाइल में चलती रहेगी।

जाहिर है कि भारत में इस तरह के हादसों से कोई सबक नहीं लिया जाता है। हादसों के तुरंत बाद मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री राहत कोष से मुआवजे का ऐलान कर दिया जाता है, कुछ छोटे मोटे लोगों को गिरफ्तार कर लिया जाता है और उसके बाद जांच शुरू हो जाती है, जिससे अंत में किसी की जवाबदेही नहीं तय होती है। एक समय था, जब रेल दुर्घटना पर लाल बहादुर शास्त्री ने और विमान हादसे पर माधवराव सिंधिया ने इस्तीफा दे दिया था। लेकिन अब कोई जिम्मेदारी नहीं लेता है। जब तक इस तरह के हादसों के वास्तविक जिम्मेदारों को सजा नहीं होगी तब तक ऐसे हादसे नहीं रूकेंगे। मोरबी हादसे में मारे गए लोगों की सच्ची श्रद्धांजलि मुआवजा देना नहीं है। अगर सरकारें इससे सबक लेती हैं, वास्तविक जिम्मेदार लोगों को सजा देती हैं और यह सुनिश्चित करती हैं कि देश भर में जितने भी पुल और इस तरह का स्ट्रक्चर है, उनकी जांच होगी, जहां जरूरत होगी वहां मरम्मत होगी और एक भी जान ऐसे हादसे में नहीं जाने दी जाएगी, वह मोरबी में मारे गए लोगों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

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