मुलायम सिंह यादव
मुलायम सिंह यादव ने एक अति सामान्य पृष्ठभूमि से उठ कर देश के सर्वोच्च नेताओं में अपनी जगह बनाई। एक अवसर ऐसा था, जब अगर (जैसाकि कहा जाता है) लालू प्रसाद यादव ने कड़ा एतराज ना जताया होता, तो वे सचमुच भारत के प्रधानमंत्री बन सकते थे। उत्तर प्रदेश की राजनीति में डेढ़ दशक तक वे एक बड़ा पहलू बने रहे। यह इसे ऐसे कहा जा सकता है कि उप्र की राजनीति की वे एक धुरी बने रहे।
ये तमाम उपलब्धियां ऐसी हैं, जिनकी वजह से आधुनिक भारत के राजनीतिक इतिहास में उनका एक खास स्थान रहेगा। ये दीगर बात है कि जब वे दुनिया से विदा हुए, तब उनकी राजनीति संभावनाविहीन हो चुकी थी। ये संभावनाएं इस आशा में जगी थीं कि सामाजिक न्याय की राजनीति भारत के आर्थिक-सामाजिक और सियासी ढांचे में बड़े बदलाव का जनक बनेगी। मगर मुलायम सिंह और उनके समान विचारों वाले नेताओं के जीवनकाल में ही इस सोच की प्रति-राजनीति देश की सर्व प्रमुख धारा बनते हुए सत्ता और विचार तंत्र पर अपना वर्चस्व जमा लिया।
आज हालात ऐसे हैं, जिनमें सामाजिक न्याय की सियासत जिन मकसदों के लिए खड़ी नजर आती थी, आज की राजनीति उसके बिल्कुल विपरीत दिशा में आगे बढ़ रही है। अब यह इतिहास में एक पड़ताल का विषय रहेगा कि हालात को यहां तक लाने में सामाजिक न्याय की राजनीति की क्या भूमिका रही? आखिर उसने लोगों की जगी उम्मीदों को इस हद तक क्यों तोड़ दिया कि कभी उनका जनाधार माने जाने वाले जन समुदाय हिंदुत्व की राजनीति के ध्वजवाहक हो गए? क्या इसके लिए जिम्मेदार मुलायम सिंह जैसे नेताओं में दूरदृष्टि और बड़े उद्देश्य की भावना का अभाव था, जिसकी वजह एक बड़ी संभावनाओं वाली सियासत परिवारवाद और अवसर बाद का पर्याय मानी जाने लगी? आज सामाजिक न्याय की विचारधारा अलग-अलग जातियों की पहचान जताने की प्रवृत्तियों का शिकार होकर जख्मी अवस्था में नजर आती है।
अफसोसनाक यह है कि इस संकट की स्थिति में भी 1990 के दशक की सबसे प्रभावशाली राजनीति के वारिस कोई नई सोच- नई दृष्टि जन समुदायों के सामने में पेश करने में अक्षम बने हुए हैँ। क्यों? संभवत: इन प्रश्नों का माकूल जवाब ढूंढना ही मुलायम सिंह यादव के प्रति सबसे उचित श्रद्धांजलि होगी।